ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा लेखक: चन्द्रभानु आर्य जिस मानव संस्कृति या भारतीय संस्कृति का हम महिमा मण्डन करते हैं, उसकी अन्यतम विशेषता यह है कि यह मानव के व्यक्तिगत चरित्र निर्माण पर केन्द्रित है। भारतीय संस्कृति को इस मानव संस्कृति की प्रतिनिधि के रूप में इसलिए सम्मान दिया जाता है क्योंकि भारतवर्ष के लोगों ने बहुत बड़े बड़े सांस्कृतिक झंझावातों के बीच में भी अपना सब कुछ देकर भी अपनी इस सांस्कृतिक थाती को बचाकर रखा। तभी तो बहुत काल तक इस देश के लोगों के चरित्र को आदर्श मानकर दुनिया के लोग अपने जीवन को सार्थक बनाते रहे। एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्र शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्व मानवाः। आदि सम्राट् महाराज मनु का यह स्पष्ट निर्देश पृथिवी के समस्त मानवों के लिए था। इसी परिप्रेक्ष्य में भारत के लोगों ने धन खोया, जन खोया, लेकिन चरित्र नहीं खोया। भारतवर्ष में ही क्या जब भी संसार में कोई विपत्ति आई तो उसके मूल में मनुष्य की अपनी आत्महीनता और चारित्रिक न्यूनताएँ थीं। जब समाज के पथ निर्धारक लोग चारित्रिक दुर्बलताओं का शिकार हो गए तो प्रत्येक क्षेत्र में गरिमा की हानि हुई। च
नारी विदुला सी महतारी,
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जुबां पर बात दिल की ला न पाये। हम अपने आप को समझा न पाये।। कहाँ मुमकिन है उनके पास जाना, हम अपने पास तक भी आ न पाये।। कहीं वे भीड़ में गुम हो गए हैं, हम उनके सामने भी जा न पाये।। न हम उनके सिवा कुछ सोचते हैं- वे हमको आज तक अपना न पाये।। न जाने किस तरह की बंदिशें हैं, जुबां पर नाम तक भी ला न पाये।। कोई संगीत वे भी दे न पाये, अकेले हम कभी भी गा न पाये।। समर्पित काश उनको जान पाते, जो जाते वक्त भी बतला न पाये।।
यह देश जिन्दा रहेगा तो धरती पर मानवता जिन्दा रहेगी। जो लोग अपने देश और धर्म पर बलिदान दे देते हैं, क्या उन्हें अपने जीवन के मूल्य का अनुमान नहीं होता? वास्तव मे ं जो अपने आदर्शों के लिए जीवन की आहुति दे देते हैं, जीवन का मूल्य तो वही जानते हैं। और वे ही उन आदर्शों की कीमत जानते हैं। तभी तो देश के विचार और आदर्शों की रक्षा करने के लिए अपने प्राण देकर भी वे इसे सस्ता सौदा समझते हैं। नेता जी ने कहा- हम रहें न रहें, यह देश रहना चाहिए। देशभक्तों के सामने एक आदर्श रहा, जिसने उन्हें सर्वदा शक्ति दी। वे हँसते हँसते बलिदान देते गए। उनके सामने फांसी का फंदा था, वे बेडि़याँ खनकाते, गाते गाते फांसी पर चढ़ गए। उनके सामने विष का प्याला था, उन्होंने अमृत समझकर उसका पान किया और आँखें मूंद लीं। गोलियाँ थीं, अपना सीना आगे कर दिया। कहने में यह कविता कितनी अच्छी लगती है, पर जिन लोगों ने इसका भाष्य लिखा उन लोगों के बारे में हम क्षण भर आँखें बंद कर चिन्तन करें तो ऐसा लगता है जैसे वे किसी अलौकिक दुनिया के प्राणी थे। कितनी विडम्बना है कि इस देश मेें गरीब जनता की खून पसीने की कमाई से ऐश करने वाल
badiya hein
जवाब देंहटाएंdhanya vad!
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