वक्त के अलगाव भी क्या खूब हैं।
जिन्दगी के ताव भी क्या खूब हैं।।
 

रोज गिरते जा रहे हैं बेशतर,
आदमी के भाव भी क्या खूब हैं।
 

हारना पहले से निश्चित है जहां,
बेखुदी के दांव भी क्या खूब हैं।
 

रोज रिसते हैं कभी भरते नहीं,
हादसों के घाव भी क्या खूब हैं।
        सहदेव ‘समर्पित’

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