संदेश

मई, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

गजल

चित्र
है नहीं, लेकिन कहाता जा रहा है आदमी.  बेखुदी के गीत गाता जा रहा है आदमी..  अश्क के तूफान से ये आग बुझ सकती नहीं,  व्यर्थ ही आंसू बहाता जा रहा है आदमी.  आदमी तो जिंदगी का राज समझे है हजूर,  आज पर क्यूं तिलमिलाता जा रहा है आदमी.  और इसको देखकर मंजिल न पा जाएं कहीं,  रह के पत्थर गिराता जा रहा है आदमी.  दर्द की सौगात करने को 'समर्पित' दौर को,  बेबसी में खिलखिलाता जा रहा है आदमी.