संदेश

जुबां पर बात दिल की ला न पाये। हम अपने आप को समझा न पाये।। कहाँ मुमकिन है उनके पास जाना, हम अपने पास तक भी आ न पाये।। कहीं वे भीड़ में गुम हो गए हैं, हम उनके सामने भी जा न पाये।। न हम उनके सिवा कुछ सोचते हैं- वे हमको आज तक अपना न पाये।। न जाने किस तरह की बंदिशें हैं, जुबां पर नाम तक भी ला न पाये।। कोई संगीत वे भी दे न पाये, अकेले हम कभी भी गा न पाये।। समर्पित काश उनको जान पाते, जो जाते वक्त भी बतला न पाये।।
रोग का मूल शरीर के रोग का मूल हमारे मन में है। मन के नकारात्मक चिन्तन का ही प्रभाव शरीर पर पड़ता है। मन रोगी है तो शरीर भी रोगी हो जाएगा। जानते हुए भी शरीर के लिए हानिकारक आचरण, खानपान करना मन का ही रेाग है, स्वस्थ रहने की इच्छाशक्ति के अभाव में ही मनुष्य अनुचित आचरण करता है। उसके मन में जो चोर बैठा हुआ है वह उसको कमजोर बनाता है। उस चोर को वश में करने के लिए संकल्प का बल चाहिए। वह संकल्प का बल आए कहाँ से? शरीर का अनुचित पोषण करते करते आन्तरिक शरीर की तो सर्वथा उपेक्षा की गई है।     मन भी शरीर की तरह ही जड़ है, और शरीर के पोषण की तरह से ही इसका पोषण होता है। बाह्य पोषण के अतिरिक्त इसके पोषण की विचित्र बात है कि इसका पोषण अन्दर से भी होता है। हमारे संकल्प विकल्प के दो ही स्रोत हैं। एक बाहर का और एक अन्दर का। जब अन्दर का संकल्प शुभ होगा तो बाहरी प्रतिकूलताओं में भी व्यक्ति अच्छी बात ही देखेगा। यदि व्यक्ति का मन स्वस्थ होगा तो दूसरे व्यक्ति या समाज से भी शुभ संकल्प का ही ग्रहण करेगा। इसी संसार में अनुकूलताएँ भी हैं प्रतिकूलताएँ भी। इसी संसार में दूसरों के लिए अपने जीवन का पल पल समर्पित कर
यह देश जिन्दा रहेगा तो धरती पर मानवता जिन्दा रहेगी। जो लोग अपने देश और धर्म पर बलिदान दे देते हैं, क्या उन्हें अपने जीवन के मूल्य का अनुमान नहीं होता? वास्तव मे ं जो अपने आदर्शों के लिए जीवन की आहुति दे देते हैं, जीवन का मूल्य तो वही जानते हैं। और वे ही उन आदर्शों की कीमत जानते हैं। तभी तो देश के विचार और आदर्शों की रक्षा करने के लिए अपने प्राण देकर भी वे इसे सस्ता सौदा समझते हैं। नेता जी ने कहा- हम रहें न रहें, यह देश रहना चाहिए। देशभक्तों के सामने एक आदर्श रहा, जिसने उन्हें सर्वदा शक्ति दी। वे हँसते हँसते बलिदान देते गए। उनके सामने फांसी का फंदा था, वे बेडि़याँ खनकाते, गाते गाते फांसी पर चढ़ गए। उनके सामने विष का प्याला था, उन्होंने अमृत समझकर उसका पान किया और आँखें मूंद लीं। गोलियाँ थीं, अपना सीना आगे कर दिया। कहने में यह कविता कितनी अच्छी लगती है, पर जिन लोगों ने इसका भाष्य लिखा उन लोगों के बारे में हम क्षण भर आँखें बंद कर चिन्तन करें तो ऐसा लगता है जैसे वे किसी अलौकिक दुनिया के प्राणी थे। कितनी विडम्बना है कि इस देश मेें गरीब जनता की खून पसीने की कमाई से ऐश करने वाल
शेष हैं कुछ काम अब भी। चल जला पुरुषार्थ का दीपक, अरे बन राम अब भी। शेष हैं कुछ काम अब भी।। तारकों का पथ प्रदर्शन छोड तू खुद चॉंद-सा बन। राह है तेरे पगों में, सामने है लक्ष्य पावन। ठोकरों पर मत गिला कर, मुड़ न वापस तिलमिला कर, कण्टकों को कर तिरस्कृत पग बढ़ा अविराम अब भी!! शेष हैं कुछ काम अब भी! कण्टकों में फूल-सा खिल, औ’ तिमिर में दीप-सा जल। शिव बना खुद को पथिक तू, संकटों का पी हलाहल।। ऑंधियों में जिन्दगी है, रे अगर तू आदमी है। तो समझ ले जिन्दगी में हेय है विश्राम अब भी!! शेष हैं कुछ काम अब भी!! रात की काली सतह पर, लिख अरे कुछ लेख अब भी। शेष है सुबह का तेरे, रक्त से अभिषेक अब भी। सुबह की आशा यही है, राह की भाषा यही है, हो ‘समर्पित’ चल-चला-चल, राह पर निष्काम अब भी। शेष हैं कुछ काम अब भी!!  
‘‘ईश्वर के न मानने में हानि’’      प्रायः यह सुना जाता है कि अमुक व्यक्ति ईश्वर को नहीं मानता और बहुत सुखी है तथा अमुक ईश्वर को मानता है, वह दुःखी  है अतः ईश्वर के मानने का क्या लाभ हुआ? यह शंका अधिकतर लोगों को घेरे रहती है। इस पर भी विचार किया जाना अति आवश्यक है। आइये, इस लेख के माध्यम से हम संक्षिप्त रूप में यह चर्चा करें कि ईश्वर को न मानने से क्या हानियां हैं। इससे आस्तिक लोगों को तो जो लाभ होगा सो होगा ही परन्तु एक तर्कपूर्ण विवेचन होने से नास्तिक लोगों को भी उतना ही लाभ होगा। यूं तो ईश्वर के न मानने से अनेकों समस्यायें/हानियां उपस्थित होती हैं परन्तु मुख्य रूप से कुछ निम्न बिन्दुओं में हमने इनको सम्मिलित करने का प्रयास किया है जिनमें सामान्य रूप से कई बातें आ जाती है। 1    कृतघ्नता:- सबसे पहली हानि तो जो ईश्वर के न मानने से होती है वह है कृतघ्नता। ईश्वर हमारे ऊपर अनन्त उपकारों की वर्षा करते हैं। अपनी दया व अनुकम्पा से अनादि काल से हम लोगों को कल्याण ही करते रहते हैं और अनन्त काल तक करते रहेंगे। आश्चर्य इस बात का है कि इसके बदले में वे हमसे लेते कुछ भी नहीं। जबकि संसार में यदि

सिद्धि के लिए सच्चे साधन

सिद्धि के लिए सच्चे साधन -स्वामी श्रद्धानन्द जी यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य, वर्तते कामचारतः। न स सिद्धिमवाप्नोति, न सुखं न परां गतिम्।। गीता 16/3 शब्दार्थ- (यः) जो मनुष्य, (शास्त्रविधिम्) शास्त्र की विधि एवं आदेश को (उत्सृज्य) छोड़कर (कामचारतः वर्तते) अपनी इच्छानुकूल आचरण करता है, (सः सिद्धिं न अवाप्नोति) वह न तो सिद्धि या सफलता को प्राप्त कर सकता है (न सुखम्) न सुख को, (न परां गतिम्) और न मुक्ति को प्राप्त कर सकता है।     उपदेश- जन्म दिन से ही बालक के निर्माण साधनों की आवश्यकता को न केवल आर्य ऋषियों ने ही अनुभव किया है, बल्कि संसार के सब विद्वानों ने संस्कारों की महानता के आगे सिर झुकाया है। जो मनुष्य संस्कार सम्पन्न नहीं हैं, वह मनुष्य जीवन के उच्च आदर्श की तरफ एक कदम भी नहीं बढ़ा सकता। दुःखों से छूट कर शान्त अवस्था को प्राप्त करना, मनुष्य जन्म का परम उद्देश्य है। किन्तु दुःखों से मनुष्य छूट कैसे सकता है? जब तक कि सुख प्राप्ति के साधनों का उसे ज्ञान न हो। इसलिए कृष्ण भगवान् ने सिद्धि, सुख और मुक्ति का क्रम से वर्णन किया है। किन्तु सिद्धि के लिए साधनों की आवश्यकता है। उन साधनों की
    ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा लेखक: चन्द्रभानु आर्य जिस मानव संस्कृति या भारतीय संस्कृति का हम महिमा मण्डन करते हैं, उसकी अन्यतम विशेषता यह है कि यह मानव के व्यक्तिगत चरित्र निर्माण पर केन्द्रित है। भारतीय संस्कृति को इस मानव संस्कृति की प्रतिनिधि के रूप में इसलिए सम्मान दिया जाता है क्योंकि भारतवर्ष के लोगों ने बहुत बड़े बड़े सांस्कृतिक झंझावातों के बीच में भी अपना सब कुछ देकर भी अपनी इस सांस्कृतिक थाती को बचाकर रखा। तभी तो बहुत काल तक इस देश के लोगों के चरित्र को आदर्श मानकर दुनिया के लोग अपने जीवन को सार्थक बनाते रहे।  एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्र शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्व मानवाः। आदि सम्राट् महाराज मनु का यह स्पष्ट निर्देश पृथिवी के समस्त मानवों के लिए था। इसी परिप्रेक्ष्य में भारत के लोगों ने धन खोया, जन खोया, लेकिन चरित्र नहीं खोया। भारतवर्ष में ही क्या जब भी संसार में कोई विपत्ति आई तो उसके मूल में मनुष्य की अपनी आत्महीनता और चारित्रिक न्यूनताएँ थीं। जब समाज के पथ निर्धारक लोग चारित्रिक दुर्बलताओं का शिकार हो गए तो प्रत्येक क्षेत्र में गरिमा की हानि हुई। च