‘‘ईश्वर के न मानने में हानि’’
प्रायः यह सुना जाता है कि अमुक व्यक्ति ईश्वर को नहीं मानता और बहुत सुखी है तथा अमुक ईश्वर को मानता है, वह दुःखी है अतः ईश्वर के मानने का क्या लाभ हुआ? यह शंका अधिकतर लोगों को घेरे रहती है। इस पर भी विचार किया जाना अति आवश्यक है। आइये, इस लेख के माध्यम से हम संक्षिप्त रूप में यह चर्चा करें कि ईश्वर को न मानने से क्या हानियां हैं। इससे आस्तिक लोगों को तो जो लाभ होगा सो होगा ही परन्तु एक तर्कपूर्ण विवेचन होने से नास्तिक लोगों को भी उतना ही लाभ होगा। यूं तो ईश्वर के न मानने से अनेकों समस्यायें/हानियां उपस्थित होती हैं परन्तु मुख्य रूप से कुछ निम्न बिन्दुओं में हमने इनको सम्मिलित करने का प्रयास किया है जिनमें सामान्य रूप से कई बातें आ जाती है।
1 कृतघ्नता:- सबसे पहली हानि तो जो ईश्वर के न मानने से होती है वह है कृतघ्नता। ईश्वर हमारे ऊपर अनन्त उपकारों की वर्षा करते हैं। अपनी दया व अनुकम्पा से अनादि काल से हम लोगों को कल्याण ही करते रहते हैं और अनन्त काल तक करते रहेंगे। आश्चर्य इस बात का है कि इसके बदले में वे हमसे लेते कुछ भी नहीं। जबकि संसार में यदि कोई हमारा थोड़ा सा भी कार्य कर देता है या हम पर कोई उपकार करता है तो उसके बदले में हमसे कुछ न कुछ चाहता अवश्य है। मान लो कि कोई ऐसा भी है कि जो बदले में कुछ भी नहीं चाहता तो वह भी हमारा कार्य केवल उस समय तक करता है जब तक कि हमारी विचारधारा का उससे टकराव न हो। और जहां विचारधारा मंे भिन्नता आई, उसे हमारा शत्रु बनने में भी देर नहीं लगती। परन्तु ईश्वर का उपकार इस कोटि का नहीं है। चाहे हम आस्तिक हों या नास्तिक वह कभी हमारा न तो शत्रु बनता न अपने उपकारों का कोई बदला चाहता और न ही उन्हें करना बन्द करता है। हमारी सब आवश्यकतायें उसी की सहायता से पूर्ण होती हैं। उसकी सहायता के बिना हम एक पग भी नहीं उठा सकते फिर भी यदि उसके उपकारों को या उसे न माने तो कृतघ्नता का महा-पाप हमें लगता है। शास्त्रकारों ने जहां अन्य पापों का प्रायश्चित माना है, वहीं कृतघ्नता को ऐसा पाप माना है कि जिसका कोई प्रायश्चित भी नहीं है। कृतज्ञ होना मनुष्यों का महान गुण है और कृतघ्न होना महान दोष या पाप। विचार कीजिए कि यदि ईश्वर हमें शरीर देता और उसकी आवश्यकता की पूर्ति हेतू अन्य साधन न देता तो हमारी क्या दशा होती? हम उसका क्या बिगाड लेते? परन्तु आश्चर्य है कि यूं तो हमारा कोई छोटा सा भी कार्य कर देता है तो हम उसका गुणवान करते फिरते हैं और जो नित्य निरंतर हम पर अनन्त कृपायें बरसाता रहता है, बिन मांगे सब कुछ देता जाता है, उसे जानते तक नहीं, अपितु सदैव उसकी अवहेलना ही करते जाते हैं। क्या इस दोष का कोई मूल्यांकन कर सकेगा। भगवान को न मानने से जो पाप हमें लगा उसका भला हम कोई सुधार कर पायेंगे? क्या यह मनुष्यता है?
2 दूसरी हानि है किसी भी पदार्थ का निर्माण न हो पाना:- मान लीजिये कि कोई ऐसा नीरस शुष्क एवं केवल भौतिकवादी बुद्धिजीवी है कि जो न तो भगवान को मानता है और न ही कृतज्ञता को मानता है। यह संसार को केवल एक लेन-देन की मण्डी मानता है। यह मानता है कि बिना लिये दिये यहां का कार्य नहीं चलता। मात्र लेन-देन ही संसार का आधार है। ठीक है, कोई कुछ भी मानने में स्वतंत्र है जिसका जैसा जी चाहे मानें। परन्तु विज्ञान को तो मानना ही पडेगा। चाहे आस्तिक हो या नास्तिक दोनों ही इसे स्वीकार करते हैं। अपितु नास्तिक इसे अधिक स्वीकार करता है। वह यह मानता है कि संसार परमाणुओं के मिलने से हुआ है। परमाणुणों के मिलन का नाम रचना है और बिखरन का नाम विनाश है। सब ग्रह उपग्रह परस्पर आकर्षण में बंधे हुए नियम से कार्य कर रहे है। ‘बिग बैंग’ से परमाणुओं में गति उत्पन्न हुई और उनके मेल से धीरे-2 पदार्थों का निर्माण होता चला गया। ठीक है! हम थोडी देर के लिए उनके इस विचार से सहमति रखते हैं। परन्तु विज्ञान को विज्ञान की ही दृष्टि से देखना चाहिए, मूर्खता की दृष्टि से नही। ऐसा नहीं है कि विज्ञान में सब कार्य चमत्कारी ढंग से पूर्ण होते हैं। स्मरण रखिये कि विज्ञान में एक क्रमबद्धता (वतकमत) होती है और सब कार्य एक निश्चित क्रम में एक नियम के अनुसर करते हैं। यदि रत्ती भर भी उस नियम का भंग होगा तो कार्य कभी सम्पन्न नहीं हो सकेगा। संसार के सभी भौतिकवादी इसे एक मत से स्वीकार करते हैं। विज्ञान के जितने भी कार्य आपको दिखाई देते हैं वे सभी इसी नियमबद्धता पर आधारित हैं। अब विचार करना चाहिये कि क्या नियम कभी बिना नियामक के बन सकता है? क्या नियम स्वयं बन जाते हैं? सड़क पर बाई ओर लोग अपने आप चलने लग गये या किसी ने ऐसा करने के लिए कहा? बाजार में अधिक वाहनों आदि के होने से भीड़ होने पर लाल बत्ती होने पर रूकने एवं हरी होने पर चलने का नियम स्वयं बन गया था या किसी ने बनाया? नियम कभी भी बिना नियामक के नहीं बनता। नियामक की यह विशेषता है कि वह कहीं भी, कुछ भी अपने नियमों को नहीं बदलता, चाहे इसके लिए उसे कितनी भी कठिनाई का सामना क्यों न करना पडे। इसलिए यदि आप विज्ञानवादी हैं और यह मानते हैं कि नियम बनाने वाला कोई नहीं तो इस बात को अपने मन से निकाल दीजिये कि नियम स्वयं बनते हैं। अरे! जब सड़क पर चलने का साधारण सा नियम भी स्वयं नहीं बनता तो पदार्थों के निर्माण का महान कार्य क्या कभी बिना कर्ता के हो सकता है?
दर्शन एवं विज्ञान दोनों इस बात को स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। वैशेषिक दर्शन का ऋषि कहता है - ‘कारण अभावात् कार्य अभावः।’ अर्थात् कारण नहीं होगा तो कार्य नहीं होगा। यह एक सर्वतन्त्र सिद्धांत है। न्दपअमतेंस ज्तनजी है जो कहीं भी, कभी भी कुछ भी नहीं बदलता। जैसे पृथ्वी घूमती है इसे सब स्वीकार करते हैं। वैसे यह भी सिद्धांत है कि बिना कारण के कार्य नहीं होता। अब कारण कितने हैं? भारतीय वैज्ञानिकों, अपितु वैदिक विद्वानो ने इसे तीन भागों में विभक्त किया है। उपादान कारण वह कि जिससे वस्तु बनती है जैसे कि घड़ा मिट्टी से मेज लकडी से और तलवार लोहे से बनती है। जब तक मिट्टी लकडी एवं लोहा नहीं होगा तब तक घड़ा मेज व तलवार नहीं बन सकते। दूसरा है साधारण कारण वह कि बनाने के साधन, घड़ा बनाने के लिये चाक, दण्ड, पानी एवं समय की, मेज बनाने के लिए कुल्हाडी रन्दा, कीलें आदि की और तलवार बनाने के लिए भट्ठी, हथौड़ा, अग्नि आदि की आवश्यकता है। समय तो सामूहिक रूप से सबमें लगता ही है। अब मिट्टी है, चाक है, दण्ड है, पानी है और कुल्हाडी रन्दा, कीले, भट्ठी हथौडा अग्नि आदि सभी कुछ है, परन्तु बनाने वाला कुम्हार, बढ़ई और लौहार नहीं है तो क्या ये सब वस्तुऐं अपने आप बन जायेंगी? कदापि नहीं, यही तीसरा कारण कारण निमित्त कारण कहलाता है। ये वे तीन परम आवश्यक साधन हैं जिनके बिना कभी कोई पदार्थ या रचना संभव ही नहीं है। अतः इस स्थिति में नास्तिक लोगों का यह कहना ठीक नहीं है कि संसार मात्र परमाणुओं के मेल से स्वयं बन गया। नहीं-2 उपादान कारण प्रकृति, साधारण कारण-समय आदि और निमित्त कारण स्वयं ईश्वर के बिना सृष्टि रचना की कल्पना ही व्यर्थ है। यहां एक शंका यह हो सकती है कि जैसे कुम्हार को घड़ा बनाने के लिए चाक, दण्ड पानी आदि की आवश्यकता है तो क्या ईश्वर को भी इस प्रकार के बाहरी साधनों की आवश्यकता थी
जी नहीं! ईश्वर का कार्य बाहरी रूप से पदार्थों का निर्माण करने का नहीं है। बाहरी साधनों की आवश्यकता अल्प शक्ति वालों एवं स्थूल शरीर वालों को रहती है। सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, एवं परम सूक्ष्म ईश्वर को नहीं। वह तो परमाणुओं के भीतर भी व्यापक है और बाहर भी अतः उसे कार्य करने के लिए बाहरी साधनों की आवश्यकता ही नहीं है। वह अन्दर से अपना कार्य करता है। स्मरण रखिये ईश्वर का कार्य घड़ा, मेज या तलवार बनाना नहीं है अपितु मिट्टी, लकड़ी या लोहा (वह भी सूक्ष्म अवस्था में) बनाना है जो मनुष्य नहीं बना सकता।
अब यदि आप ईश्वर को नहीं मानते तो विज्ञान का सारा दुर्ग एक फूक में उड़ जायेगा। अतः यह कहना कि परमाणुओं में गति आने से सब पदार्थों का निर्माण स्वतः ही हो गया, मूर्खता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। वेद मंत्र स्वयं कहता है- हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। संसार की उत्पत्ति से पूर्व प्रकृति भी थी और उसको गति देने वाला उसका स्वामी ईश्वर भी था। अतः यदि ईश्वर को न मानें तो यह महान् समस्या उत्पन्न हो जायेगी कि कोई भी पदार्थ बन नहीं सकेगा।
3 ज्ञान का अभाव: तीसरी महान् हानि होगी प्राणियों में और विशेष रूप से मनुष्यों में ज्ञान का अभाव होगा। ज्ञान दो प्रकार का है एक स्वाभाविक, दूसरा नैमितिक। स्वाभाविक ज्ञान जो पशुओं आदि है, इसमें कोई बहुत अधिक परिवर्धन नहीं किया जा सकता। हां! सामान्य रूप से उसका उपयोग हम अपने अनुसार करने योग्य उन्हें मोड़ लेते हैं परन्तु मनुष्यों का ज्ञान इससे भिन्न है। यह बढ़ाने से बढ़ जाता है और घटाने से घट जाता है। यदि सृष्टि के आरंभ में, ईश्वर मनुष्य को ज्ञान (वेद) न देता तो यह कभी भी ज्ञानवान नहीं बन सकता था। जो लोग (विशेष रूप से विकासवादी) यह कहते हैं कि मनुष्य में ज्ञान का उदय धीरे-2 हुआ, आरंभ में वह निरा जंगली ही था अपितु पशु ही था, वे बहुत बडी भूल में पडे हैं। उदाहरण के रूप में हमने अपने शिक्षकों से, गुरूओं से शिक्षा पाई, उन्होंने अपने गुरूओं से और उन्होंने अपने गुरूओं से। यह क्रम पीछे की और चलते-2 एक ऐसी अवस्था में चला जाता है जहां पर शिक्षा देने वाला कोई भी गुरू नहीं बचता। उस समस्या का समाधान संसार का महानतम आस्तिक ऋषि, पंतजलि करता है। वह कहता है ‘ स पूर्वेषामापि गुरू कालेनानवच्छेदात् (योग 1/26) वह गुरूओं का भी गुरू है जिसको काल भी बाधित नहीं कर सकता। विकासवादी कहता है कि मनुष्य का विकास बन्दर से हुआ और धीरे-2 उसके ज्ञान में वृद्धि हुई। प्रथम तो इस विचार में ही अनेकों भ्रांतियां हैं फिर भी यदि यह मान लिया जाये कि मनुष्य का विकास बन्दरों से हुआ तो फिर ज्ञान का उदय होना, वह भी उतनी उच्च कोटि का यह नितांत असंभव है। बाहर की परिस्थितियां चाहे कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हांे, उससे केवल इतना तो प्रभाव पड़ सकता है कि उससे प्राणियों का बाह्य रंग रूप कुछ बदल जाये या उनका खान पान बदल जाये परन्तु यह संभव नहीं है कि उनमें आमूल चूल परिवर्तन इस सीमा तक हो जाये कि जिससे उनकी समूची जाति ही बदल जाये और वह अपना विकास इस सीमा तक कर ले कि ज्ञान का उदय उसे धरा से गगन तक बढ़ा दे। बन्दरों का स्वभाव तो क्रूर, लड़ने झगड़ने एवं छीना झपटी का है। मनुष्य में यह संवेदना, एक दूसरे से सहयोग की भावना कहां से आ गई? ज्ञान भी ईश्वर प्रदत्त है। यदि ईश्वर को न मानें तो फिर आदि में ज्ञान का अभाव होने से मनुष्य अज्ञानी ही रहेगा।
4 कर्मफल व्यवस्था का भंग होना: एक महान् समस्या और भी है वह है कर्मों का उचित फल न मिलने से अन्याय का होना। हम जो भी कर्म करते हैं उनका अच्छा या बुरा फल कर्मानुसार अवश्य मिलता है। यह एक अटल व्यवस्था है जिसके सहारे संसार चलता है और न्याय व्यवस्था जीवित रहती है। मनुष्यों ने भी समाज को ठीक से चलाने के लिए, लोगों की सुरक्षा एवं समृद्धि के लिये दण्ड व्यवस्था या न्याय व्यवस्था का निर्माण किया। यदि व्यक्ति को उसके कर्मों का फल ठीक से न मिले तो निरा जंगली हो जायेगा। उस दशा में समाज में इतनी भयानक स्थिति उत्पन्न हो जायेगी कि हम एक दिन भी न तो सुख से जीवित रह पायेगें और न ही किसी प्रकार की उन्नति ही संभव हो पायेगी। कारण! कि जब बुरे कर्म का फल दुःख रूप में, दण्ड रूप में नही मिलेगा तो कोई अच्छा कर्म करेगा ही क्यों? इसलिए जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है और फल भोगने में परतन्त्र। अर्थात् फल वह ईश्वरीय व्यवस्था से पाता है। कोई अपने बुरे कर्म का फल दुःख या दण्ड स्वयं ही क्यों भोगना चाहेगा?
5 दयालुता का अभाव एवं हिंसा की वृद्धि: अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य मंे कुछ विशेष ईश्वर ने दिया है। वह है दूसरे प्राणियों के प्रति दया का भाव यह भी ईश्वर प्रदत्त है। अन्य प्राणी दया करना नही जानते, वे तो अपना पेट भरने के लिए दूसरों को मार कर खा जाते हैं। परन्तु मनुष्य में कुछ विशेष भाव ईश्वर ने संभवतः इसलिये भरा है कि मनुष्य सारे संसार का स्वामी भी है और श्रेष्ठ भी है। स्वामी का स्वामित्व और श्रेष्ठ की श्रेष्ठता इसी में है कि वह दूसरों पर दया करे। यदि दया का भाव न होगा तो फिर हिंसा की वृद्धि होकर सब एक दूसरे के शत्रु बन के लड मरेंगे। यह संवेदना, यह दया बिना ईश्वर के संभव नहीं है। अपने पैर में कांटा चुभने पर पीड़ा की अनुभूति होना ज्ञान है परन्तु दूसरे के पैर में पीड़ा होने पर उसकी सहायता के लिए दौड़ पड़ना यह ज्ञान का नहीं संवदेना का दया का कार्य है। मनुष्यों में जिस दिन यह भाव समाप्त हो जायेगा उस दिन मनुष्य जाति भी समाप्त हो जायेगी। अतः ईश्वर को न मानने से यह दोष भी उत्पन्न हो जायेगा।
6 सृष्टि का संचालन न हो पाना: ईश्वर सृष्टि को उत्पन्न ही नहीं करता अपितु वह उसका ठीक ढंग से संचालन भी करता है। स्मरण रखना चाहिए कि जब हम सृष्टि के बात करते हैं तो उसमें यह सब कुछ आ जाता है जो हमें दिखाई देता है और नहीं दिखाई देता है। मनुष्य, पशु, पक्षी, जंगल, नदियां, पहाड़, ग्रह, उपग्रह, वायु, जल, अग्नि आदि समस्त वस्तुऐं। आज हम यह जान चुके हैं कि सब ग्रह उपग्रह गुरूत्वाकर्षण की शक्ति में बंधे अपनी-2 धुरी पर घूम रहे हैं। कोई भी किसी से टकराता नहीं है। पृथ्वी को ही ले लीजिये। कितनी भारी, कितनी विशाल है यह। इस पर क्या-2 नहीं है? फिर यह घूमती भी है वह भी इतनी व्यवस्था से कि हमंे घूमना अनुभव भी नहीं होता। क्या यह व्यवस्था धरती के सारे मनुष्य मिल कर सकते हैं? कितना हास्यास्पद लगता है ना। परन्तु ईश्वर मात्र हमारी धरती को ही नहीं अपितु अनगिनत ब्रह्माण्डों को धारण करता है और उन्हें घुमाता भी है उनका संचालन भी करता है। एक पल को भी यदि वह इस कार्य को न करे तो हमारा क्या हाल होगा हम कल्पना भी नहीं कर सकते। अपने घर के संचालन हेतु हम क्या-2 कार्य नही करते दिन रात इसमें लगे रहते हैं, फिर गांव का संचालन फिर नगर का प्रान्त का देश और विश्व की व्यवस्था के संचालनार्थ कितनी समितियां, सभायें, संस्थाये कार्य कर रही हैं विचार कर देशो। जब साधारण से साधारण कार्य को दक्षतापूर्वक संचालन की आवश्यकता है तो फिर सृष्टि का कार्य बिना संचालक के चल सकेगा? ईश्वर के न मानने वाले तनिक विचारें।
7 सृष्टि का प्र्रलय: उत्पत्ति के लिये, संचालन के लिये तो ईश्वर की आवश्यकता समझ में आती है परन्तु प्रलय? प्रलय क्या होना चाहिए? बनाना तो समझ में आ गया परन्तु बिगाड़ना भी आवश्यक है क्या? हां ! उतना ही आवश्यक है जितना कि बनाना। आपने बहुत सुन्दर, सुदृढ़ एवं सुखमय साधनों वाला भवन बनाया। आप उसमे रहे, फिर आपके बच्चे रहे। परन्तु समय के साथ-2 वह भी खण्डित होता चला गया। जब आपके पौत्र एवं प्रपौत्र उसमें रहने लगे तो उन्होंने क्या देखा कि दीवारों में जगह-2 दरारें पड़ चुकी थी, छत भी जर्जर हो गई थी, फर्श भी उखड़ने लगे थे, अब उसमे रहना सरुक्षित नहीं रहा। वे तुरंत उसे छोड कर अन्यत्र जा बसते हैं और उसका नये सिरे से निर्माण करते हैं। निर्माण करने के लिए उस भवन का गिराना, उसको तोड़ना उसका विनाश करना आवश्यक है। जब आयु पूरी हो गई तो फिर प्रलय या विनाश अत्यन्त आवश्यक है। विज्ञान के अनुसार उंजजमत बंद दवज इम बतमंजमक दवत कमेजतवलमक अर्थात् कोई तत्व न तो बनाया जा सकता और न ही उसका विनाश किया जा सकता है। जब यह सृष्टि भी अपनी आयु पूरी करने के उपरान्त उपयोग के योग्य नहीं रहती तो फिर इसका प्रलय भी ईश्वर आपने सामर्थ्य से करता है। यदि ईश्वर को न मानेंगें तो यह दोष भी आ जायेगा कि सृष्टि का प्रलय न होगा।
इसके अतिरिक्त अन्य भी कई बिन्दु हो सकते हैं परन्तु वे लगभग सभी उक्त बिन्दुओं के अन्तर्गत आ जाते हैं। अब मात्र यह प्रश्न बचता है कि यदि हम ईश्वर को न मानें तो वह हमारा क्या बिगाड़ लेगा। यह प्रश्न सम्भवतः हम इसलिए उठाते हैं कि समाज में या राज्य व्यवस्था में जब हम किसी विधि विधान को नहीं मानते या कार्यक्षेत्र में अपने अधिकारी की नहीं मानते तो प्रत्यक्ष रूप में हमे दण्ड भुगतना पड़ता है। वह इसलिए है कि हम उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति का उनकी व्यवस्था का एक साधन हैं। परन्तु ईश्वर के विषय में ऐसा नहीं है। हम ईश्वर की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर रहे हैं। उसे हमारी आवश्यकता नहीं है, हमें उसकी आवश्यकता है। यदि हम ईश्वर को न मानेंगे तो जिन गुणों की उपलब्धि उससे हमें होनी है वह न होगी और हमारा समाज, हमारा जीवन बिगड़ जायेगा। राज्य व्यवस्था में इसके विपरीत है। राज्य अपनी सब आवश्यकताओं के लिए हम पर निर्भर है, जहां भी उसकी आवश्यकता में नियम में बाधा पहंुचेगी वह दण्ड देगा। हम न तो ईश्वर की आवश्यकता में बांधा पहुंचा सकते हैं और न ही उसका नियम भंग कर सकते हैं अतः वह कभी भी कुपित होता ही नहीं है। वह मात्र हमारे कर्मों का साक्षी है और जैसा कर्म वैसा प्रदाता है। अतः बिगाड़ने का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। यह उल्टी व्यवस्था होने के कारण यदि हमें सुख चाहिये, शांति चाहिये, आपसी प्रेम, सौहार्द का वातावरण चाहिये आत्मिक उत्थान चाहिये तो हमें उसे मानना ही पडेगा। एक बात और कि कोई ईश्वर को नहीं मानता तो सुखी है या ईश्वर को न मानता है और सुखी है। यह ईश्वर को मानने या न मानने के कारण नहीं है। कभी किसी ने अच्छे कर्म किये तो उनका फल भोग रहा है और किसी ने बुरे कर्म किये तो उनका भी फल भोग रहा है। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ईश्वर का सच्चा भक्त ईश्वरीय व्यवस्था को जानकर कभी दुःख में भी धैर्य नहीं छोड़ता न उसका शोक मनाता है अपितु हंसते-2 सब कुछ सहन कर लेता है और दूसरी ओर नास्तिक जो भौतिक सुख साधनों से सम्पन्न होने पर भी तनिक सी आपत्ति में भी धैर्य खोकर महान् कष्ट उठाता है और आत्महत्या का घृणित कार्य भी कर डालता है। भौतिक साधनों की उपलब्धि/अभाव किसी के सुख एवं दुःखी होने का प्रमाण नहीं है।
रामफलसिंह आर्य शांतिधर्मी मासिक सितम्बर 2013
1 कृतघ्नता:- सबसे पहली हानि तो जो ईश्वर के न मानने से होती है वह है कृतघ्नता। ईश्वर हमारे ऊपर अनन्त उपकारों की वर्षा करते हैं। अपनी दया व अनुकम्पा से अनादि काल से हम लोगों को कल्याण ही करते रहते हैं और अनन्त काल तक करते रहेंगे। आश्चर्य इस बात का है कि इसके बदले में वे हमसे लेते कुछ भी नहीं। जबकि संसार में यदि कोई हमारा थोड़ा सा भी कार्य कर देता है या हम पर कोई उपकार करता है तो उसके बदले में हमसे कुछ न कुछ चाहता अवश्य है। मान लो कि कोई ऐसा भी है कि जो बदले में कुछ भी नहीं चाहता तो वह भी हमारा कार्य केवल उस समय तक करता है जब तक कि हमारी विचारधारा का उससे टकराव न हो। और जहां विचारधारा मंे भिन्नता आई, उसे हमारा शत्रु बनने में भी देर नहीं लगती। परन्तु ईश्वर का उपकार इस कोटि का नहीं है। चाहे हम आस्तिक हों या नास्तिक वह कभी हमारा न तो शत्रु बनता न अपने उपकारों का कोई बदला चाहता और न ही उन्हें करना बन्द करता है। हमारी सब आवश्यकतायें उसी की सहायता से पूर्ण होती हैं। उसकी सहायता के बिना हम एक पग भी नहीं उठा सकते फिर भी यदि उसके उपकारों को या उसे न माने तो कृतघ्नता का महा-पाप हमें लगता है। शास्त्रकारों ने जहां अन्य पापों का प्रायश्चित माना है, वहीं कृतघ्नता को ऐसा पाप माना है कि जिसका कोई प्रायश्चित भी नहीं है। कृतज्ञ होना मनुष्यों का महान गुण है और कृतघ्न होना महान दोष या पाप। विचार कीजिए कि यदि ईश्वर हमें शरीर देता और उसकी आवश्यकता की पूर्ति हेतू अन्य साधन न देता तो हमारी क्या दशा होती? हम उसका क्या बिगाड लेते? परन्तु आश्चर्य है कि यूं तो हमारा कोई छोटा सा भी कार्य कर देता है तो हम उसका गुणवान करते फिरते हैं और जो नित्य निरंतर हम पर अनन्त कृपायें बरसाता रहता है, बिन मांगे सब कुछ देता जाता है, उसे जानते तक नहीं, अपितु सदैव उसकी अवहेलना ही करते जाते हैं। क्या इस दोष का कोई मूल्यांकन कर सकेगा। भगवान को न मानने से जो पाप हमें लगा उसका भला हम कोई सुधार कर पायेंगे? क्या यह मनुष्यता है?
2 दूसरी हानि है किसी भी पदार्थ का निर्माण न हो पाना:- मान लीजिये कि कोई ऐसा नीरस शुष्क एवं केवल भौतिकवादी बुद्धिजीवी है कि जो न तो भगवान को मानता है और न ही कृतज्ञता को मानता है। यह संसार को केवल एक लेन-देन की मण्डी मानता है। यह मानता है कि बिना लिये दिये यहां का कार्य नहीं चलता। मात्र लेन-देन ही संसार का आधार है। ठीक है, कोई कुछ भी मानने में स्वतंत्र है जिसका जैसा जी चाहे मानें। परन्तु विज्ञान को तो मानना ही पडेगा। चाहे आस्तिक हो या नास्तिक दोनों ही इसे स्वीकार करते हैं। अपितु नास्तिक इसे अधिक स्वीकार करता है। वह यह मानता है कि संसार परमाणुओं के मिलने से हुआ है। परमाणुणों के मिलन का नाम रचना है और बिखरन का नाम विनाश है। सब ग्रह उपग्रह परस्पर आकर्षण में बंधे हुए नियम से कार्य कर रहे है। ‘बिग बैंग’ से परमाणुओं में गति उत्पन्न हुई और उनके मेल से धीरे-2 पदार्थों का निर्माण होता चला गया। ठीक है! हम थोडी देर के लिए उनके इस विचार से सहमति रखते हैं। परन्तु विज्ञान को विज्ञान की ही दृष्टि से देखना चाहिए, मूर्खता की दृष्टि से नही। ऐसा नहीं है कि विज्ञान में सब कार्य चमत्कारी ढंग से पूर्ण होते हैं। स्मरण रखिये कि विज्ञान में एक क्रमबद्धता (वतकमत) होती है और सब कार्य एक निश्चित क्रम में एक नियम के अनुसर करते हैं। यदि रत्ती भर भी उस नियम का भंग होगा तो कार्य कभी सम्पन्न नहीं हो सकेगा। संसार के सभी भौतिकवादी इसे एक मत से स्वीकार करते हैं। विज्ञान के जितने भी कार्य आपको दिखाई देते हैं वे सभी इसी नियमबद्धता पर आधारित हैं। अब विचार करना चाहिये कि क्या नियम कभी बिना नियामक के बन सकता है? क्या नियम स्वयं बन जाते हैं? सड़क पर बाई ओर लोग अपने आप चलने लग गये या किसी ने ऐसा करने के लिए कहा? बाजार में अधिक वाहनों आदि के होने से भीड़ होने पर लाल बत्ती होने पर रूकने एवं हरी होने पर चलने का नियम स्वयं बन गया था या किसी ने बनाया? नियम कभी भी बिना नियामक के नहीं बनता। नियामक की यह विशेषता है कि वह कहीं भी, कुछ भी अपने नियमों को नहीं बदलता, चाहे इसके लिए उसे कितनी भी कठिनाई का सामना क्यों न करना पडे। इसलिए यदि आप विज्ञानवादी हैं और यह मानते हैं कि नियम बनाने वाला कोई नहीं तो इस बात को अपने मन से निकाल दीजिये कि नियम स्वयं बनते हैं। अरे! जब सड़क पर चलने का साधारण सा नियम भी स्वयं नहीं बनता तो पदार्थों के निर्माण का महान कार्य क्या कभी बिना कर्ता के हो सकता है?
दर्शन एवं विज्ञान दोनों इस बात को स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक कार्य का कोई न कोई कारण अवश्य होता है। वैशेषिक दर्शन का ऋषि कहता है - ‘कारण अभावात् कार्य अभावः।’ अर्थात् कारण नहीं होगा तो कार्य नहीं होगा। यह एक सर्वतन्त्र सिद्धांत है। न्दपअमतेंस ज्तनजी है जो कहीं भी, कभी भी कुछ भी नहीं बदलता। जैसे पृथ्वी घूमती है इसे सब स्वीकार करते हैं। वैसे यह भी सिद्धांत है कि बिना कारण के कार्य नहीं होता। अब कारण कितने हैं? भारतीय वैज्ञानिकों, अपितु वैदिक विद्वानो ने इसे तीन भागों में विभक्त किया है। उपादान कारण वह कि जिससे वस्तु बनती है जैसे कि घड़ा मिट्टी से मेज लकडी से और तलवार लोहे से बनती है। जब तक मिट्टी लकडी एवं लोहा नहीं होगा तब तक घड़ा मेज व तलवार नहीं बन सकते। दूसरा है साधारण कारण वह कि बनाने के साधन, घड़ा बनाने के लिये चाक, दण्ड, पानी एवं समय की, मेज बनाने के लिए कुल्हाडी रन्दा, कीलें आदि की और तलवार बनाने के लिए भट्ठी, हथौड़ा, अग्नि आदि की आवश्यकता है। समय तो सामूहिक रूप से सबमें लगता ही है। अब मिट्टी है, चाक है, दण्ड है, पानी है और कुल्हाडी रन्दा, कीले, भट्ठी हथौडा अग्नि आदि सभी कुछ है, परन्तु बनाने वाला कुम्हार, बढ़ई और लौहार नहीं है तो क्या ये सब वस्तुऐं अपने आप बन जायेंगी? कदापि नहीं, यही तीसरा कारण कारण निमित्त कारण कहलाता है। ये वे तीन परम आवश्यक साधन हैं जिनके बिना कभी कोई पदार्थ या रचना संभव ही नहीं है। अतः इस स्थिति में नास्तिक लोगों का यह कहना ठीक नहीं है कि संसार मात्र परमाणुओं के मेल से स्वयं बन गया। नहीं-2 उपादान कारण प्रकृति, साधारण कारण-समय आदि और निमित्त कारण स्वयं ईश्वर के बिना सृष्टि रचना की कल्पना ही व्यर्थ है। यहां एक शंका यह हो सकती है कि जैसे कुम्हार को घड़ा बनाने के लिए चाक, दण्ड पानी आदि की आवश्यकता है तो क्या ईश्वर को भी इस प्रकार के बाहरी साधनों की आवश्यकता थी
जी नहीं! ईश्वर का कार्य बाहरी रूप से पदार्थों का निर्माण करने का नहीं है। बाहरी साधनों की आवश्यकता अल्प शक्ति वालों एवं स्थूल शरीर वालों को रहती है। सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, एवं परम सूक्ष्म ईश्वर को नहीं। वह तो परमाणुओं के भीतर भी व्यापक है और बाहर भी अतः उसे कार्य करने के लिए बाहरी साधनों की आवश्यकता ही नहीं है। वह अन्दर से अपना कार्य करता है। स्मरण रखिये ईश्वर का कार्य घड़ा, मेज या तलवार बनाना नहीं है अपितु मिट्टी, लकड़ी या लोहा (वह भी सूक्ष्म अवस्था में) बनाना है जो मनुष्य नहीं बना सकता।
अब यदि आप ईश्वर को नहीं मानते तो विज्ञान का सारा दुर्ग एक फूक में उड़ जायेगा। अतः यह कहना कि परमाणुओं में गति आने से सब पदार्थों का निर्माण स्वतः ही हो गया, मूर्खता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। वेद मंत्र स्वयं कहता है- हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। संसार की उत्पत्ति से पूर्व प्रकृति भी थी और उसको गति देने वाला उसका स्वामी ईश्वर भी था। अतः यदि ईश्वर को न मानें तो यह महान् समस्या उत्पन्न हो जायेगी कि कोई भी पदार्थ बन नहीं सकेगा।
3 ज्ञान का अभाव: तीसरी महान् हानि होगी प्राणियों में और विशेष रूप से मनुष्यों में ज्ञान का अभाव होगा। ज्ञान दो प्रकार का है एक स्वाभाविक, दूसरा नैमितिक। स्वाभाविक ज्ञान जो पशुओं आदि है, इसमें कोई बहुत अधिक परिवर्धन नहीं किया जा सकता। हां! सामान्य रूप से उसका उपयोग हम अपने अनुसार करने योग्य उन्हें मोड़ लेते हैं परन्तु मनुष्यों का ज्ञान इससे भिन्न है। यह बढ़ाने से बढ़ जाता है और घटाने से घट जाता है। यदि सृष्टि के आरंभ में, ईश्वर मनुष्य को ज्ञान (वेद) न देता तो यह कभी भी ज्ञानवान नहीं बन सकता था। जो लोग (विशेष रूप से विकासवादी) यह कहते हैं कि मनुष्य में ज्ञान का उदय धीरे-2 हुआ, आरंभ में वह निरा जंगली ही था अपितु पशु ही था, वे बहुत बडी भूल में पडे हैं। उदाहरण के रूप में हमने अपने शिक्षकों से, गुरूओं से शिक्षा पाई, उन्होंने अपने गुरूओं से और उन्होंने अपने गुरूओं से। यह क्रम पीछे की और चलते-2 एक ऐसी अवस्था में चला जाता है जहां पर शिक्षा देने वाला कोई भी गुरू नहीं बचता। उस समस्या का समाधान संसार का महानतम आस्तिक ऋषि, पंतजलि करता है। वह कहता है ‘ स पूर्वेषामापि गुरू कालेनानवच्छेदात् (योग 1/26) वह गुरूओं का भी गुरू है जिसको काल भी बाधित नहीं कर सकता। विकासवादी कहता है कि मनुष्य का विकास बन्दर से हुआ और धीरे-2 उसके ज्ञान में वृद्धि हुई। प्रथम तो इस विचार में ही अनेकों भ्रांतियां हैं फिर भी यदि यह मान लिया जाये कि मनुष्य का विकास बन्दरों से हुआ तो फिर ज्ञान का उदय होना, वह भी उतनी उच्च कोटि का यह नितांत असंभव है। बाहर की परिस्थितियां चाहे कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हांे, उससे केवल इतना तो प्रभाव पड़ सकता है कि उससे प्राणियों का बाह्य रंग रूप कुछ बदल जाये या उनका खान पान बदल जाये परन्तु यह संभव नहीं है कि उनमें आमूल चूल परिवर्तन इस सीमा तक हो जाये कि जिससे उनकी समूची जाति ही बदल जाये और वह अपना विकास इस सीमा तक कर ले कि ज्ञान का उदय उसे धरा से गगन तक बढ़ा दे। बन्दरों का स्वभाव तो क्रूर, लड़ने झगड़ने एवं छीना झपटी का है। मनुष्य में यह संवेदना, एक दूसरे से सहयोग की भावना कहां से आ गई? ज्ञान भी ईश्वर प्रदत्त है। यदि ईश्वर को न मानें तो फिर आदि में ज्ञान का अभाव होने से मनुष्य अज्ञानी ही रहेगा।
4 कर्मफल व्यवस्था का भंग होना: एक महान् समस्या और भी है वह है कर्मों का उचित फल न मिलने से अन्याय का होना। हम जो भी कर्म करते हैं उनका अच्छा या बुरा फल कर्मानुसार अवश्य मिलता है। यह एक अटल व्यवस्था है जिसके सहारे संसार चलता है और न्याय व्यवस्था जीवित रहती है। मनुष्यों ने भी समाज को ठीक से चलाने के लिए, लोगों की सुरक्षा एवं समृद्धि के लिये दण्ड व्यवस्था या न्याय व्यवस्था का निर्माण किया। यदि व्यक्ति को उसके कर्मों का फल ठीक से न मिले तो निरा जंगली हो जायेगा। उस दशा में समाज में इतनी भयानक स्थिति उत्पन्न हो जायेगी कि हम एक दिन भी न तो सुख से जीवित रह पायेगें और न ही किसी प्रकार की उन्नति ही संभव हो पायेगी। कारण! कि जब बुरे कर्म का फल दुःख रूप में, दण्ड रूप में नही मिलेगा तो कोई अच्छा कर्म करेगा ही क्यों? इसलिए जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है और फल भोगने में परतन्त्र। अर्थात् फल वह ईश्वरीय व्यवस्था से पाता है। कोई अपने बुरे कर्म का फल दुःख या दण्ड स्वयं ही क्यों भोगना चाहेगा?
5 दयालुता का अभाव एवं हिंसा की वृद्धि: अन्य प्राणियों की अपेक्षा मनुष्य मंे कुछ विशेष ईश्वर ने दिया है। वह है दूसरे प्राणियों के प्रति दया का भाव यह भी ईश्वर प्रदत्त है। अन्य प्राणी दया करना नही जानते, वे तो अपना पेट भरने के लिए दूसरों को मार कर खा जाते हैं। परन्तु मनुष्य में कुछ विशेष भाव ईश्वर ने संभवतः इसलिये भरा है कि मनुष्य सारे संसार का स्वामी भी है और श्रेष्ठ भी है। स्वामी का स्वामित्व और श्रेष्ठ की श्रेष्ठता इसी में है कि वह दूसरों पर दया करे। यदि दया का भाव न होगा तो फिर हिंसा की वृद्धि होकर सब एक दूसरे के शत्रु बन के लड मरेंगे। यह संवेदना, यह दया बिना ईश्वर के संभव नहीं है। अपने पैर में कांटा चुभने पर पीड़ा की अनुभूति होना ज्ञान है परन्तु दूसरे के पैर में पीड़ा होने पर उसकी सहायता के लिए दौड़ पड़ना यह ज्ञान का नहीं संवदेना का दया का कार्य है। मनुष्यों में जिस दिन यह भाव समाप्त हो जायेगा उस दिन मनुष्य जाति भी समाप्त हो जायेगी। अतः ईश्वर को न मानने से यह दोष भी उत्पन्न हो जायेगा।
6 सृष्टि का संचालन न हो पाना: ईश्वर सृष्टि को उत्पन्न ही नहीं करता अपितु वह उसका ठीक ढंग से संचालन भी करता है। स्मरण रखना चाहिए कि जब हम सृष्टि के बात करते हैं तो उसमें यह सब कुछ आ जाता है जो हमें दिखाई देता है और नहीं दिखाई देता है। मनुष्य, पशु, पक्षी, जंगल, नदियां, पहाड़, ग्रह, उपग्रह, वायु, जल, अग्नि आदि समस्त वस्तुऐं। आज हम यह जान चुके हैं कि सब ग्रह उपग्रह गुरूत्वाकर्षण की शक्ति में बंधे अपनी-2 धुरी पर घूम रहे हैं। कोई भी किसी से टकराता नहीं है। पृथ्वी को ही ले लीजिये। कितनी भारी, कितनी विशाल है यह। इस पर क्या-2 नहीं है? फिर यह घूमती भी है वह भी इतनी व्यवस्था से कि हमंे घूमना अनुभव भी नहीं होता। क्या यह व्यवस्था धरती के सारे मनुष्य मिल कर सकते हैं? कितना हास्यास्पद लगता है ना। परन्तु ईश्वर मात्र हमारी धरती को ही नहीं अपितु अनगिनत ब्रह्माण्डों को धारण करता है और उन्हें घुमाता भी है उनका संचालन भी करता है। एक पल को भी यदि वह इस कार्य को न करे तो हमारा क्या हाल होगा हम कल्पना भी नहीं कर सकते। अपने घर के संचालन हेतु हम क्या-2 कार्य नही करते दिन रात इसमें लगे रहते हैं, फिर गांव का संचालन फिर नगर का प्रान्त का देश और विश्व की व्यवस्था के संचालनार्थ कितनी समितियां, सभायें, संस्थाये कार्य कर रही हैं विचार कर देशो। जब साधारण से साधारण कार्य को दक्षतापूर्वक संचालन की आवश्यकता है तो फिर सृष्टि का कार्य बिना संचालक के चल सकेगा? ईश्वर के न मानने वाले तनिक विचारें।
7 सृष्टि का प्र्रलय: उत्पत्ति के लिये, संचालन के लिये तो ईश्वर की आवश्यकता समझ में आती है परन्तु प्रलय? प्रलय क्या होना चाहिए? बनाना तो समझ में आ गया परन्तु बिगाड़ना भी आवश्यक है क्या? हां ! उतना ही आवश्यक है जितना कि बनाना। आपने बहुत सुन्दर, सुदृढ़ एवं सुखमय साधनों वाला भवन बनाया। आप उसमे रहे, फिर आपके बच्चे रहे। परन्तु समय के साथ-2 वह भी खण्डित होता चला गया। जब आपके पौत्र एवं प्रपौत्र उसमें रहने लगे तो उन्होंने क्या देखा कि दीवारों में जगह-2 दरारें पड़ चुकी थी, छत भी जर्जर हो गई थी, फर्श भी उखड़ने लगे थे, अब उसमे रहना सरुक्षित नहीं रहा। वे तुरंत उसे छोड कर अन्यत्र जा बसते हैं और उसका नये सिरे से निर्माण करते हैं। निर्माण करने के लिए उस भवन का गिराना, उसको तोड़ना उसका विनाश करना आवश्यक है। जब आयु पूरी हो गई तो फिर प्रलय या विनाश अत्यन्त आवश्यक है। विज्ञान के अनुसार उंजजमत बंद दवज इम बतमंजमक दवत कमेजतवलमक अर्थात् कोई तत्व न तो बनाया जा सकता और न ही उसका विनाश किया जा सकता है। जब यह सृष्टि भी अपनी आयु पूरी करने के उपरान्त उपयोग के योग्य नहीं रहती तो फिर इसका प्रलय भी ईश्वर आपने सामर्थ्य से करता है। यदि ईश्वर को न मानेंगें तो यह दोष भी आ जायेगा कि सृष्टि का प्रलय न होगा।
इसके अतिरिक्त अन्य भी कई बिन्दु हो सकते हैं परन्तु वे लगभग सभी उक्त बिन्दुओं के अन्तर्गत आ जाते हैं। अब मात्र यह प्रश्न बचता है कि यदि हम ईश्वर को न मानें तो वह हमारा क्या बिगाड़ लेगा। यह प्रश्न सम्भवतः हम इसलिए उठाते हैं कि समाज में या राज्य व्यवस्था में जब हम किसी विधि विधान को नहीं मानते या कार्यक्षेत्र में अपने अधिकारी की नहीं मानते तो प्रत्यक्ष रूप में हमे दण्ड भुगतना पड़ता है। वह इसलिए है कि हम उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति का उनकी व्यवस्था का एक साधन हैं। परन्तु ईश्वर के विषय में ऐसा नहीं है। हम ईश्वर की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर रहे हैं। उसे हमारी आवश्यकता नहीं है, हमें उसकी आवश्यकता है। यदि हम ईश्वर को न मानेंगे तो जिन गुणों की उपलब्धि उससे हमें होनी है वह न होगी और हमारा समाज, हमारा जीवन बिगड़ जायेगा। राज्य व्यवस्था में इसके विपरीत है। राज्य अपनी सब आवश्यकताओं के लिए हम पर निर्भर है, जहां भी उसकी आवश्यकता में नियम में बाधा पहंुचेगी वह दण्ड देगा। हम न तो ईश्वर की आवश्यकता में बांधा पहुंचा सकते हैं और न ही उसका नियम भंग कर सकते हैं अतः वह कभी भी कुपित होता ही नहीं है। वह मात्र हमारे कर्मों का साक्षी है और जैसा कर्म वैसा प्रदाता है। अतः बिगाड़ने का कोई प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। यह उल्टी व्यवस्था होने के कारण यदि हमें सुख चाहिये, शांति चाहिये, आपसी प्रेम, सौहार्द का वातावरण चाहिये आत्मिक उत्थान चाहिये तो हमें उसे मानना ही पडेगा। एक बात और कि कोई ईश्वर को नहीं मानता तो सुखी है या ईश्वर को न मानता है और सुखी है। यह ईश्वर को मानने या न मानने के कारण नहीं है। कभी किसी ने अच्छे कर्म किये तो उनका फल भोग रहा है और किसी ने बुरे कर्म किये तो उनका भी फल भोग रहा है। यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ईश्वर का सच्चा भक्त ईश्वरीय व्यवस्था को जानकर कभी दुःख में भी धैर्य नहीं छोड़ता न उसका शोक मनाता है अपितु हंसते-2 सब कुछ सहन कर लेता है और दूसरी ओर नास्तिक जो भौतिक सुख साधनों से सम्पन्न होने पर भी तनिक सी आपत्ति में भी धैर्य खोकर महान् कष्ट उठाता है और आत्महत्या का घृणित कार्य भी कर डालता है। भौतिक साधनों की उपलब्धि/अभाव किसी के सुख एवं दुःखी होने का प्रमाण नहीं है।
रामफलसिंह आर्य शांतिधर्मी मासिक सितम्बर 2013
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