ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा

लेखक: चन्द्रभानु आर्य

जिस मानव संस्कृति या भारतीय संस्कृति का हम महिमा मण्डन करते हैं, उसकी अन्यतम विशेषता यह है कि यह मानव के व्यक्तिगत चरित्र निर्माण पर केन्द्रित है। भारतीय संस्कृति को इस मानव संस्कृति की प्रतिनिधि के रूप में इसलिए सम्मान दिया जाता है क्योंकि भारतवर्ष के लोगों ने बहुत बड़े बड़े सांस्कृतिक झंझावातों के बीच में भी अपना सब कुछ देकर भी अपनी इस सांस्कृतिक थाती को बचाकर रखा। तभी तो बहुत काल तक इस देश के लोगों के चरित्र को आदर्श मानकर दुनिया के लोग अपने जीवन को सार्थक बनाते रहे।  एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्र शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्व मानवाः। आदि सम्राट् महाराज मनु का यह स्पष्ट निर्देश पृथिवी के समस्त मानवों के लिए था। इसी परिप्रेक्ष्य में भारत के लोगों ने धन खोया, जन खोया, लेकिन चरित्र नहीं खोया। भारतवर्ष में ही क्या जब भी संसार में कोई विपत्ति आई तो उसके मूल में मनुष्य की अपनी आत्महीनता और चारित्रिक न्यूनताएँ थीं। जब समाज के पथ निर्धारक लोग चारित्रिक दुर्बलताओं का शिकार हो गए तो प्रत्येक क्षेत्र में गरिमा की हानि हुई। चारित्रिक दुर्बलताओं के कारण संभा जी जैसे राजपुत्र शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित दृढ़ आर्य साम्राज्य के विनाश का कारण बन गए और इसी बल के कारण महाराणा प्रताप जैसे नरपुंगव अपने समय के सर्वाधिक शक्तिशाली आक्रमणकारियों को टक्कर दे सके। जब से व्यक्तिगत चरित्र को उपेक्षित किया गया तब से यह देश वह न रहा जिससे विश्व के लोग प्रेरणा ले सकते। स्थिति यहाँ तक पहुंची कि सार्वभौम चक्रवर्ती राज्य का दावा करने वाले भारतपुत्र सदियों तक गुलाम रहे और आज भी उन दुर्बलताओं और हीनताओं से उभर नहीं सके।
    इस संस्कृति में अपनी विवाहिता पत्नी को छोड़कर अन्य स्त्रियों को माता का स्थान दिया गया। मातृवत् परदारेषु--। जब शिवाजी महाराज का सेनापति एक शत्रु की पुत्रवधु को पकड़कर लाया तो शिवाजी महाराज का सिर अपने सेनापति के कृत्य पर झुक गया। उन्होंने अपने नादान सेनापति के कृत्य पर क्षमायाचना करते हुए उस नवयौवना को माता कहकर उसके शिविर में वापस लौटा दिया। कारागार में दुर्गादास राठौर के पास जब गुलेनार ने आकर उसे भ्रष्ट करना चाहा तो वीर सेनानी की असली वीरता की परीक्षा हुई, जब उसने मृत्यु की धमकी को सुनकर भी अपने चरित्र की रक्षा की। काशी में जब शास्त्रार्थ में अपराजेय स्वामी दयानन्द को गिराने के लिए एक कन्या को षड़यंत्रपूर्वक भेजा गया तो उसने कहा कि मैं आप जैसा पुत्र चाहती हूँ। इस पर आदित्य ब्रह्मचारी ने कहा कि आप मेरी माता हैं आप मुझे ही अपना पुत्र समझ लीजिए। यही चारित्रिक बल था जिसके कारण सारा विश्व भारत के सामने सर झुकाता रहा। जब पतन हुआ तो इतना हुआ कि विश्व को ब्रह्मचर्य की संजीवनी की शिक्षा देने वाले देश को आज एक विदेशी व्यापारी एड्स जैसी कुख्यात बिमारियों से बचने के तौर तरीके सिखा रहा है। संयम और सदाचार की शिक्षा देने के स्थान अश्लीलता और चरित्रहीनता का प्रचार बढ़ाकर देश के कर्णधारों ने अपने पांवों पर आप कुल्हाड़ी मारी है। पाश्चात्य अपसंस्कृति के जहर ने पीढ़ी को लील लिया है। उसको चरित्र की शिक्षा देने वाला कोई नहीं रहा। आज हमारे फौजियों का उत्साह बढ़ाने के लिए सीमाओं पर नर्तकियाँ और अभिनेत्रियाँ भेजी जाती हैं। नारी स्वतंत्रता के नाम पर चरित्रहीन लोगों ने नारी को मात्र भोग्या बना दिया है। टी0 वी0 चैनलों की होड़ ने नारी की गरिमा को इतना गिरा दिया कि उसका माता का स्थान तो एक कल्पना की वस्तु बन गया। आज जबकि इस अंधता के परिणाम भी मिलने शुरु हो गये हैं, इस ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा। आज भी इन भयंकर रोगों से बचने के लिए संयम और सदाचार की शिक्षा नहीं दी जा रही, अपितु दुराचार के नए नए तरीकों का प्रचार किया जा रहा है। चरित्रहीनता के पोषक अभिनेता अभिनेत्रियों को प्रोत्साहित और सम्मानित किया जा रहा है और चरित्र की रक्षा के लिए ब्रह्मचर्य की शिक्षा को आज भी शिक्षा पद्धति में कोई स्थान नहीं है। यदि ब्रह्मचर्य पर आधारित प्राचीन शिक्षा प्रणाली को पुनः प्रतिष्ठित किया जावे तो देश की जवानी  इन महाभयंकर बिमारियों से बच सकती है। स्वामी रामदेव का कथन ठीक ही है कि देश को सैक्स शिक्षा की नहीं, योग शिक्षा की आवश्यकता है। प्राचीन भारतीय संविधान के अनुसार व्यभिचारी स्त्री और पुरुषों को लोहे का पलंग लाल करके मृत्यु दण्ड दिया जाता था, आज उन्हें पद्म भूषण दिये जा रहे हैं। स्वामी दयानन्द कहते हैं कि लड़कियों का विद्यालय लड़कों के विद्यालय से कम से कम दो कोस की दूरी पर हो। लड़कियों के विद्यालय में पांच साल का लड़का भी न जाने पावे और लड़कों के विद्यालय में पांच साल की लड़की भी न जाने पावे।  आज देश को बिजली पानी से भी अधिक ब्रह्मचर्य की शिक्षा की आवश्यकता है। इसके अभाव में ही सारी दुर्बलताएँ, रोग और क्लीवता फैल रही है। राम के बेटे पोते आज सब कुछ होते हुए भी दीन हीन अवस्था में जीवन यापन कर रहे हैं। यदि हमें राष्ट्र अभिमान और आत्म गौरव की रक्षा करनी है तो इसका एक ही रास्ता है- ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा।    -चन्द्रभानु आर्य                    

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