नारी विदुला सी महतारी, अरिदल पर पड़ जाती भारी। बनकर के तलवार देश की, करती मारो मार देश की। धरकर रूप महाकाली का, लेकर दोनों हाथ दुधारी। कूद पड़ी जब महासमर में, बेटा अपना बांध कमर में! भगदड़ मच गई शत्रु दल में, अतुलित नारी साहस बल में!! किसी तरह बलहीन नहीं है, सबला है यह दीन नहीं है। देश प्रेम का भाव हमेशा, अन्तस् में अविरल बहता है। तुम सबला हो वीर प्रसू हो, कौन तुम्हें अबला कहता है!! -समर्पित (‘राष्ट्र-उत्थान’ महाकाव्य से)
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आँख वाले तो बहुत हैं देखता कोई नहीं। जानते तो खूब हैं पर मानता कोई नहीं।। पांव भी आगे बढ़े हैं मन में है उत्साह भी, कारवां तो बन गया पर रास्ता कोई नहीं।। बेवजह तो पूछते रहते हैं सारे हाल चाल, वक्त पड़ने पर कभी भी पूछता कोई नहीं।। जब कभी हमने पुकारा-- कह दिया तुम कौन हो! हमने पूछा कौन हैं हम -कह दिया कोई नहीं!! टूटते हैं रोज रिश्ते स्वार्थ के तो बेतरह, पर कभी निःस्वार्थ रिश्ता टूटता कोई नहीं।। है कोई नाराज तो उसको मना लो दौड़कर, बेवजह अपनों से यूं ही रुठता कोई नहीं।। गर तुम्हें कोई गिला हो तो बता दो खोलकर, हम समर्पित हैं हमें तुमसे गिला कोई नहीं।। -समर्पित, 7 मई, 2011