ब्रह्मविद्या किसको प्राप्त होती है

सहदेव समर्पित दर्शनाचार्य


मनुष्य जीवन का उद्देश्य ईश्वर आज्ञा के अनुकूल आचरण करते हुए इस लोक और परलोक के सब दुखों से छूटकर-परमगति अर्थात मोक्ष को प्राप्त करना है। वह मोक्ष अथवा मुक्ति ब्रह्म विद्या के बिना प्राप्त नहीं की जा सकती। यजुर्वेद में कहा गया है- ''विद्यया अमृतम् अश्नुते।'' अर्थात् विद्या से अमरत्व प्राप्त किया जाता है। ब्रह्म विद्या ही वास्तव में विद्या है। ब्रह्म विद्या को वही प्राप्त कर सकता है, जो इसका पात्र है।
उपनिषद् में एक प्रकरण आता है। नारद मुनि महर्षि सनत्कुमार के पास जाते हैं और प्रार्थना करते हैं कि मुझे ब्रह्म विद्या का उपदेश कीजिए। महर्षि पूछते हैं- तुमने अब तक क्या-क्या पढ़ा है। नारद वेद शास्त्रों, ब्रह्मण ग्रंथों व अनेक लौकिक विषयों को गिनाकर कहते हैं कि मैंने यह सब पढ़े हैं- किंतु मै शब्द ही जानता हूं-ब्रह्म को नहीं जानता। महर्षि उनको ब्रह्म विद्या का उपदेश करते हैं।
इस प्रकरण से यह ज्ञात होता है कि केवल बहुत से ग्रंथों को पढऩे से कोई ब्रह्म को नहीं जान सकता। इसके लिए साधन को अपने आप में पात्र बनना होता है। पात्रता के बिना योग्यता अथवा सामथ्र्य नहीं मिलती है।
शास्त्रों में विद्या प्राप्ति के चार उपाय बताए गए हैं :-
गुरू शुश्रूषया विद्या विपुलेन धनेन वा।
अथवा विद्यया विद्या चतुर्थी नैव विद्यते।।
1. गुरू शुश्रूषा - श्रद्धापूर्वक गुरू के वचनों का श्रवण और तदनुकूल आचरण। 2. विपुल धन से 3. विद्या से भी विद्या प्राप्त की जा सकती है। इनमें सर्व श्रेष्ठ उपाय गुरू की श्रद्धापूर्वक सेवा और उपदेश ग्रहण ही है। गुरू के उपदेश से भी वही जिज्ञासु विद्या ग्रहण कर सकता है, जिसके अंदर जिज्ञासा का भाव कूट-कूटकर भरा हुआ हो। बिना भूख के तो भोजन भी अच्छा नहीं लगता। जिज्ञासु के अंदर ब्रह्म प्राप्ति की भूख होनी चाहिए। अन्यथा वह गुरू के उपदेश से भी विद्या प्राप्त नहीं कर सकता। अब प्रश्र यह है कि वह पात्रता क्या है? जिसके होने पर ही ब्रह्मविद्या प्राप्त की जा सकती है। निरूक्तकार आचार्य यास्क ने उदाहरण देते हुए इसकी ओर संकेत किया है-
- विद्या ह ब्रह्मणम् आजगाम
गोपाय मा शेवद्यिष्टे अहमस्मि।
असूयकायानृजवे अयताय न मा ब्रूया..।।
अर्थात् विद्या ब्रह्मवेत्ता को कहती है कि मुझे सफल करना है, तो इन तीन प्रकार के व्यक्तियों को मुझे मत देना- 1. असूयकाय 2. अनृजवे 3. अयताय। अर्थात् ये तीन प्रकार के व्यक्ति विद्या प्राप्त नहीं कर सकते- चाहे गुरू भी कितना ही प्रयास कर ले। असूयकाय - जिसका तन-मन ईष्र्या से भरा हुआ है। अनृजव: - जो सरल नहीं कुटिल है, जिसके मन में पाप भरा हुआ है। अयताय- जो प्रयत्न नहीं करता, अर्थात् गुरू के वचनों पर श्रद्धा करके उसके अनुसार कोई परिश्रम नहीं करना चाहता। भाव यह है कि ईष्र्या रहित- सभी प्राणियों से प्रेम भाव रखने वाले, शुद्ध हृदय वाले और पुरुषार्थी व्यक्ति ही ब्रह््म विद्या को प्राप्त कर सकते हैं।
मुण्डक उपनिषद् में इसको और विस्तार दे दिया गया है। ब्रह्म विद्या कौन प्राप्त कर सकता है:-
क्रियावन्त: श्रोत्रिया ब्रह्मनिष्ठा: एकर्षि श्रद्धयन्त:।
शिरोव्रतं विद्यिवद् यैस्तु चीर्णम्।।
जो क्रियावान हैं- अर्थात् कहने में ही नहीं- करने में भी विश्वास करते हैं- जो कहते हैं, उस पर आचरण भी करते हैं, वेद को जानने वाले हैं- ब्रह्म अर्थात परमेश्वर में जिनका अटल विश्वास है, जो जिज्ञासु हैं- ऋषि वचनों पर श्रद्धा रखते हैं और जो धर्म के व्रत का पालन करते हैं, वही इस ब्रह्म विद्या को ग्रहण कर सकते हंै।
जैसे एक कहावत है- हाथी के पांव में सबका पांव। इसी प्रकार सार रूप में श्वेताश्वतरोपनिषद् में कहा गया है-
यस्य देवे परा भक्ति यथा देवे तथा गुरौ।
तस्यैते कथिता हि अर्था: प्रकाशन्ते महात्मन:।।
ब्रह्म विद्या के रहस्य को वही व्यक्ति जान सकता है, जिसकी भगवान में परम भक्ति होती है तथा जैसी भगवान में भक्ति वैसी ही श्रद्धा गुरू में होती है।
वास्तव में ब्रह्म विद्या को वही प्राप्त कर सकता है, जो ब्रह्म के प्रति पूर्णतया समर्पित है। जिसने परमेश्वर की आज्ञापालन रूपी धर्म को अपने आचरण में आत्मसात् कर लिया है। जो प्रत्येक कर्म करने से पूर्व यह देखते हैं कि वह अन्तरात्मा की आवाज के अनुकूल है या नहीं। जो जागते, सोते, उठते-बैठते, खाते-पीते, लोकव्यवहार करते-परमेश्वर के सर्वव्यापक, न्यायकारी- सच्चिदानन्द स्वरूप का ध्यान करते हैं- वे उत्तरोत्तर अपने आत्मा की उन्नति करते हुए ब्रह्म विद्या के रहस्य को प्राप्त कर लेते हैं।

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